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गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण

मार्कण्डेय पुराण

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1196
आईएसबीएन :81-293-0153-9

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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...

राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र

 

मार्कण्डेयजी कहते हैं-मरुत्तके अठारह पुत्रोंमें नरिष्यन्त सबसे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ थे। क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ महाराज मरुत्तने पचासी हजार वर्षोंतक समूची पृथ्वीका राज्य किया। धर्मपूर्वक राज्यका पालन और उत्तमोत्तम यज्ञोंका अनुष्ठान करके मरुत्तने अपने ज्येष्ठ पुत्र नरिष्यन्तको राजपदपर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं वनमें चले गये। वहाँ एकाग्रचित्त होकर उन्होंने बड़ी भारी तपस्या की और अपने सुयशसे पृथ्वी एवं आकाशको व्याप्त करके वे स्वर्गलोकमें चले गये। तदनन्तर उनके बुद्धिमान् पुत्र नरिष्यन्तने अपने पिता तथा अन्य पूर्वजोंके चरित्रकी आलोचना करके मन-ही-मन सोचा-वंशकी मान-मर्यादाका पालन, लज्जाकी रक्षा, शत्रुओंपर क्रोध, सबको अपने-अपने धर्ममें लगाना और युद्धसे कभी पीठ न दिखाना-इन सब बातोंका मेरे पूर्वपुरुषोंने तथा पिताजीने जैसा पालन किया है, वैसा दूसरा कौन कर सकता है। मेरे पूर्वजोंने कौन ऐसा शुभ कर्म नहीं किया है, जिसको मैं करूँ। वे बड़े- बड़े यज्ञ करनेवाले जितेन्द्रिय, संग्रामसे पीछे न हटनेवाले, बड़े-बड़े युद्धोंमें भाग लेनेवाले तथा अनुपम पुरुषार्थी थे; मैं निष्काम कर्मका अनुष्ठान करूँगा। मेरे पहलेके राजाओंने स्वयं ही निरन्तर यज्ञोंका अनुष्ठान किया है, दूसरोंसे नहीं कराया है; मैं ऐसा करूँगा, जिससे दूसरे भी यज्ञ करें।

यों विचारकर महाराज नरिष्यन्तने धन-दानसे सुशोभित एक ऐसा यज्ञ किया, जिसके समान यज्ञ दूसरे किसीने नहीं किया था। उन्होंने ब्राह्मणोंके जीवन-निर्वाहके लिये बहुत बड़ी सम्पत्ति देकर उसकी अपेक्षा सौगुना अन्न दान किया। इस भूमिपर रहनेवाले प्रत्येक ब्राह्मणको धन और अन्न देनेके अतिरिक्त गौ, वस्त्र, आभूषण तथा धान्य भण्डार आदि भी दिये। इसके बाद जब राजाने दूसरा यज्ञ आरम्भ करना चाहा, तब इसके लिये उन्हें कहीं ब्राह्मण ही नहीं मिले। वे जिस-जिस ब्राह्मणका वरण करते, वही उत्तर देता, 'हम तो स्वयं ही यज्ञ कर रहे हैं। आप दूसरे किसी ब्राह्मणका वरण कीजिये। आपने पहले ही यज्ञमें हमें इतना धन दे दिया है, जो अनेक यज्ञ करनेपर भी समाप्त नहीं होगा। अब हमें और धनकी आवश्यकता नहीं।'

जब एक भी ऋत्विज् ब्राह्मण नहीं मिला, तब महाराजने बहिर्वेदीमें दान देनेका आयोजन किया तथापि धनसे घर भरा रहनेके कारण ब्राह्मणोंने वह दान नहीं ग्रहण किया। उस समय राजाने यह उद्गार प्रकट किया-'अहो! इस पृथ्वीपर कहीं एक भी निर्धन ब्राह्मण नहीं है, यह कितनी सुन्दर बात है!' तदनन्तर उन्होंने भक्तिपूर्वक बारंबार प्रणाम करके कुछ ब्राह्मणोंको ऋत्विज् बनाया और बहुत बड़ा यज्ञ आरम्भ किया। उस समय बड़े आश्चर्यकी बात यह हुई कि भूमण्डलके सभी ब्राह्मण यज्ञ करने लगे, इसलिये राजाके यज्ञ- मण्डपमें कोई सदस्य न बन सका। कुछ ब्राह्मण यजमान थे और कुछ यज्ञ करानेवाले पुरोहित बन गये। राजा नरिष्यन्तने जिस समय यज्ञ आरम्भ किया, उस समय पृथ्वीके समस्त ब्राह्मण उन्हींके दिये हुए धनसे यज्ञ करने लगे। पूर्व दिशामें अठारह करोड़, पश्चिममें सात करोड़, दक्षिणमें चौदह करोड़ और उत्तरमें पंद्रह करोड़ यज्ञ एक ही समय आरम्भ हुए। इस प्रकार मरुत्तनन्दन राजा नरिष्यन्त बड़े धर्मात्मा हुए। वे अपने बल और पुरुषार्थके लिये सर्वत्र प्रसिद्ध थे।

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    अनुक्रम

  1. वपु को दुर्वासा का श्राप
  2. सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
  3. धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
  4. राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
  5. पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीवकी मृत्यु तथा नरक-गति का वर्णन
  6. जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
  7. जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन
  8. पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपश्चित् के पुण्यदान से पापियों का उद्धार
  9. दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
  10. दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
  11. अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
  12. पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
  13. तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
  14. ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
  15. मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
  16. मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
  17. श्राद्ध-कर्म का वर्णन
  18. श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
  19. त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
  20. सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
  21. योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
  22. योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
  23. अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
  24. मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
  25. एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
  26. प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
  27. स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
  28. दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
  29. जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
  30. श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
  31. भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
  32. भद्राश्व आदि वर्षोंका संक्षिप्त वर्णन
  33. स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
  34. पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
  35. राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
  36. तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
  37. रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
  38. चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
  39. वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
  40. सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
  41. मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
  42. देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
  43. सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
  44. इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
  45. देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
  46. धूम्रलोचन-वध
  47. चण्ड और मुण्ड का वध
  48. रक्तबीज-वध
  49. निशुम्भ-वध
  50. शुम्भ-वध
  51. देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
  52. देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
  53. सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
  54. नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
  55. रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
  56. भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
  57. सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
  58. अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
  59. सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
  60. दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
  61. वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
  62. राजा खनित्रकी कथा
  63. क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
  64. राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
  65. श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य

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